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नही रही केदारनाथ विधायक शैला रानी रावत

नही रही केदारनाथ विधायक शैला रानी रावत

 

लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान ऊखीमठ में फिसलने से उनकी रीढ़ में चोट लग गई जिससे वे अन्त तक उबर नहीं पाईं

केकेदारनाथ विधायक  शैलारानी रावत के निधन से न केवल केदारघाटी में अपनी सशक्त आवाज को खो दिया है बल्कि उत्तराखण्ड विधान सभा ने भी एक दबंग महिला विधायक खो दी है जिसकी पूर्ति होना बहुत ही मुश्किल है। अपने क्षेत्र के विकास कार्यों के लिए वे किसी से भी लड़ने भिड़ने को तैयार रहती थीं।

उनके लिए पार्टी से अधिक क्षेत्र का विकास महत्वपूर्ण था। यह उनकी दबंगता का ही जलवा था कि वे जिन्दगी भर मैडम के रूप में जानी पहचानी गई। वे आम जनता के लिए भी मैडम रहीं तो कार्यकर्ताओं के बीच भी मैडम रही। उनका जीवन एक अकेली महिला के संघर्ष की अभूतपूर्व कहानी है। ग्राम्य विकास विभाग में सदस्य से लेकर ब्लॉक प्रमुख, जिला पंचायत अध्यक्ष तथा विधायक बनने के लिए उन्होंने कितना संघर्ष किया वह एक मिशाल है।

पुरूष प्रधान समाज से लड़ते लड़ते वे कठोर हो गई। जो उनके व्यक्तित्व में कई बार झलकता भी था। इसीलिए वे क्षेत्र के विकास के लिए हर दम लड़ने को तैयार दिखती थीं। 2015 में वे कंाग्रेस विधायक रहते क्षेत्र की अनदेखी की शिकायत पर सुनवाई न होने पर अपनी ही सरकार के खिलाफ विधान सभा में धरने पर बैठ गई थीं। तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत उन्हें शैल पुत्री ही कहकर सम्बोधन करते रहे। उनका कहना था कि अगर शैला की नहीं सुनी तो वह दुर्गा का रूप धारण कर लेती है।

क्षेत्र में भी उनकी छवि एक दबंग विधायक की रही। इसीलिए क्षेत्र में उनके समर्थकों की बड़ी संख्या है। वे जिस भी दल में रहीं उनके समर्थकों ने उन्हें भरपूर साथ दिया। इसीलिए उन पर आरोप भी लगे कि वे पार्टी में रहकर अपना समानान्तर संगठन खड़ा करती हैं। भाजपा में शामिल होने के बाद और भाजपा विधायक बनने के बाबजूद उन्होंने अपनी कार्यप्रणाली बरकरार रखी। जिसका खामियाजा उन्हें 2017 के विधान सभा चुनाव में हार से चुकाना पड़ा। 2012 में वे कांग्रेस विधायक बनी। उसी वर्ष सितम्बर माह में ऊखीमठ में बादल फटने से भीषण आपदा आ गई। रात्रि का आपदा आई और सुबह काकड़ागाड़ से पैदल चलते हुए सबसे पहले वे घटनास्थल पर पहंुचकर प्रभावितों से मिलकर राहत एवं बचाव कायों की निगरानी करने लगी। राहत एवं बचाव कार्य करने के दौरान वे फिसल गई थीं जिससे उन्हें गुम चोट भी लगी। जिसने उन्हें काफी परेशान किया। पीजीआई चण्डीगढ़ में भी उन्होंने काफी टेस्ट कराये। जिसके बाद वे ठीक महसूस कर रही थीं। 2015 के अन्त में उन्होंने वरिष्ठ विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। 2017 में भाजपा से टिकट मिलने के बाबजूद कार्यकर्ताओं द्वारा साथ न दिए जाने से वे चुनाव हार गईं। इसी दौरान उनकी पुरानी चोट फिर से उभर गई। जिसने कैंसर का रूप ले लिया। तीन वर्ष अस्पताल में रहकर उन्होंने पूरा इलाज करवाया और स्वस्थ होकर फिर से राजनैनिक सफर पर सरपट दौड़ने लगीं।

उस दौरान एक प्रेस वार्ता में उन्होंने कहा भी कि बाबा केदार की कृपा से वे पुनर्जीवित होकर लौटी हैं। शायद केदार बाबा चाहते हैं कि उनके क्षेत्र की अभी ओर सेवा उनके द्वारा हो। इसी आशीर्वाद को साथ लेकर उन्होंने 2022 में रिकार्ड बहुमत से चुनाव जीता और अपने अधूरे कार्यों को पूरा करने में जुट गईं। लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान ऊखीमठ में फिसलने से उनकी रीढ़ में चोट लग गई जिससे वे अन्त तक उबर नहीं पाईं। शायद उन्हें पता चल गया था कि उनके पास अब अधिक समय नहीं है। इसीलिए वे बिस्तर पर लेटे हुए भी क्षेत्र के विकास के लिए अधिकारियों, मन्त्रियों से बात करती रहती थीं। अपनी मौत के पांच दिन पूर्व भी वे अपने अधूरे कार्यों को लेकर चिन्तित थी। ऐसी स्थिति में भी उन्होंने अपने सहायक को बुलाकर आवश्यक दिशा निर्देश देते हुए अधिकारियों से भी बात की। अपने दम पर एक महिला का राजनीति में शून्य से शिखर तक का सफर और एक अन्तहीन संघर्ष की कहानी का भी अन्त हो गया। उनके असमय निधन से लगता है जैसे एक युग का समापन हो गया।

शैलारानी रावत का सामाजिक एवं राजनैतिक सफर एक नजर में –

सात जनवरी 1956 को जन्मी शैलारानी रावत ने अर्थशास्त्र एवं समाज शास्त्र से एमए किया था। शादी के बाद अगस्त्यमुनि में रहते हुए चिल्ड्रन एकेडमी जूनियर हाई स्कूल की स्थापना की। जो बाद में इन्टरमीडिएट कालेज बन कर क्षेत्र में शिक्षा का बड़ा केन्द्र बना। वर्ष 1989 से 2016 तक वे विद्यालय की प्रधानाचार्य रहीं। महिला जागृति संस्थान का अध्यक्ष रहते हुए साक्षरता, पर्यावरण, वन पंचायत, जैव पंचायत, महिला उत्थान बाल विकास आदि में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उत्तराखण्ड माध्यमिक शिक्षक संघ के 10 वर्षों तक अध्यक्ष पद पर रहे। वर्ष 1978 में कांग्रेस की सक्रिय सदस्य बनकर राजनैतिक पारी प्रारम्भ की। 1993 से 1998 तक ग्राम्य विकास विभाग में मनोनीत सदस्य बनकर क्षेत्र के विकास में सहयोगी बनी। राज्य में त्रिस्तरीय पंचायत व्यवस्था लागू होने के बाद 1998 में क्षेपंस बनकर उत्तराखण्ड के सबसे बड़े ब्लॉक मन्दाकिनी, अगस्त्यमुनि में ब्लॉक प्रमुख बनी। वर्ष 2002 में कांग्रेस ने उन्हें केदारनाथ विधान सभा से विधायक का टिकट दिया। परन्तु वे हार गई।2003 में परकंडी वार्ड से जिला पंचायत सदस्य बनी। इसके बाद कालीमठ क्षेत्र से उन्होंने जिपंस का चुनाव लड़ा और जीतकर जिला पंचायत अध्यक्ष बनी। 2007 में कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया। 2008 में वे पुनः जिला पंचायत सदस्य बनी। 2012 में कांग्रेस ने उनपर विश्वास करते हुए फिर से विधायक का टिकट दिया। और वे पहली बार विधान सभा में पहुंची। जहां उन्होंने विशिष्ट कार्यशैली से अपनी खास पहचान बनाई। वर्ष 2015 में नौ विधायकों के साथ वे भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आ गई। परन्तु 2017 के चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। 2019 में कैंसर जैसी बीमारी को परास्त कर वे क्षेत्र में फिर से सक्रिय हुई। 2022 में भाजपा प्रत्याशी के तौर पर रिकार्ड मतों से विजयी होकर दोबारा विधायक बनी।

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